संस्कृति
(I) देव मूलक संस्कृति
(II) प्रकृति मूलक संस्कृति
(III) पूर्वज मूलक संस्कृति
आदिम साहित्यों में उल्लेख है कि "
प्रकृति की उत्पत्ति एवं महाप्रलय (कलडूब) के बाद मानव जाति का वेन (वंश) विस्तार हुआ ।
मानव वंश किसी धर्म या जाति का नहीं था ।
धर्म और जाति युरेशियनो की कुंठित मस्तिष्क में उपजी हुई खरपतवार है, जिसे प्राकृतिक मानववादी विचारधारा रुपी फसल को नष्ट करने के लिए कपटपूर्वक बोया गया तथा अभी भी यह प्रक्रिया जारी है ।
इस अमानुष गर्भ को पैदा करने वालों को यह ज्ञात होना चाहिए था
कि मानव स्वयं प्रकृति का दिया हुआ बहुमूल्य वरदान है ।
आदिवासियों ने न कोई धर्म की स्थापना की और न ही जाति की ।
जाति और धर्म के तमाम हथकण्डों और कर्मकाण्डों से अपने आप को युगों-युगों से दूर रखा और प्रकृति सम्मत विचारधारा को ही अपना धर्म मान लिया ।
इससे बड़ी मानवीय विचारधारा में धर्म और जाति का कोई अस्तित्व ही नहीं है ।
यूरेशियन घुमंतू जाति के लोगों का गोंडवाना लैण्ड में आगमन के पश्चात गोंडवाना वासियों की कला-कौशल, प्राकृतिक परम्परावादी, सुखी एवं समृद्धपूर्ण जीवनशैली को देखकर अपने आप को तुच्छ महसूस करने लगे ।
इसी तुच्छ मानसिकता की उपज "जाति" और "धर्म" हैं ।
अपनी होसियारी या अपने आप को अस्तित्व में लाने के लिए पृथक धर्म, जाति एवं संस्कृति के निर्माण/स्थापना का कुचक्र चलाया ।
यह विचार उनके स्वयं के लिए ऊंचे स्तर की स्वार्थसिद्धी हासिल करने के लिए आवश्यक था, सो उनहोंने किया,
लेकिन आदिवासियों ने तो जाति, धर्म, संस्कृति शब्दबोध की उत्पत्ति के हजारों-लाखों वर्ष पूर्व प्राकृतिक मानव धर्म एवं संस्कृति का स्थापत्य कर लिया था ।
तब आर्यों (युरेशियनो) को गोंडवाना की धारा पर पृथक जाति, धर्म और संस्कृति की स्थापना की आवश्यकता क्यों पड़ी ?
इस तथ्य पर किसी को शक नहीं होना चाहिए कि आदिवासी संस्कृति विश्व संस्कृति कि जननी है ।
आदि और अनंतकाल से अपनी रीति-रिवाज, परम्परा, कला-कौशल एवं समृद्ध संस्कृति को अब तक बचाए रखने का कूई गूढ़ रहस्य नहीं है, किन्तु आज भी प्रकृति मूल के अपनी रीति-रिवाज, परम्परा, कला-कौशल एवं संस्कृति को आधार मानकर बिना लोभ-लालच, इमानदारी, सादगीपूर्ण, शांतिपूर्ण एवं संतोषपूर्ण जीवन जीने की कुशलता आदिवासियों की लहु के कण-कण में विद्यमान है ।
और यही उसका गौरव है. आदिवासियों की पारंपरिक जीवन पद्धति, भाषा एवं संस्कृति वास्तव में गैरआदिवासियों के समझ से परे है या जानबूझकर आदिवासियों की प्राकृतिक परम्परावादी जीवनशैली की अच्छाईयों को अपने जीवन में समाहित करने में कतराते है ?
यह बात आदिवासियों के समझ से परे नहीं हैं ।
भारत की संस्कृति निःसंदेह विश्व के अन्य देशों की संस्कृति से भिन्न/श्रेष्ठ है"
इसीलिए सम्मान भाव से देखा जता है, किन्तु वह भारत है कहाँ ?
८० प्रतिशत भारत गाँवों, कस्बों, जंगलों, पहाड़ों में बसी है ।
गाँवों, कस्बों, जंगलों, पहाड़ों का भारत यहाँ के मूलनिवासियों का भारत है ।
आदिवासियों का भारत है, जहां प्रकृति पर प्रकृतिवादी मानव सभ्यता एवं उनकी संस्कृति रची-बसी है ।
मानव के जन्म के पूर्व से लेकर मृत्यु के पश्चात तक के कार्यों में मानव समाज की प्राकृतिक संस्कृति ही संस्कृति दिखाई देती है ।
जन्म से मृत्यु तक उम्र के विभिन्न पड़ावों पर माता-पिता, भाई-बहन, घर-परिवार, समाज, देश एवं प्रकृति के बीच सैद्धांतिक, नैतिक, चारित्रिक पवित्र मानवीय संबंधों की स्थापना करते हुए सुखी एवं सांसारिक जीवन मूल्यों की सार्थकता को सिद्ध करने के लिए माता-पिता, भाई-बहन, घर-परिवार, समाज द्वारा विभिन्न सांस्कारिक रीति-रिवाज, परम्परा, कला-कौशल के गौरवपूर्ण आयोजनों के माध्यम से प्रकृतिसम्मत जीवन के गूढ़ ज्ञान का सामाजिक, नैतिक एवं कलात्मक प्रदर्शन ही मानव संस्कार है ।
प्रत्येक माता-पिता, भाई-बहन, घर-परिवार, रिश्ते-नाते एवं समाज द्वारा इस ज्ञान को अगली पीढ़ी को हस्तांतरित करने की निरंतरता को बनाए रखने के लिए किए जाने वाले कलापूर्ण आयोजन ही उसकी संस्कृति है ।
यही ज्ञान एवं सांस्कारिक कर्म ही मनुष्य को प्राणी/पशुता जीवन से मुक्त करता है ।
आदिवासी समाज ने इसी प्रकृतिसम्मत ज्ञान एवं कर्म को जीवन के विभिन्न पड़ावों पर सम्मानपूर्ण वैचारिक एवं चारित्रिक परिवर्तन के लिए संस्कृति के रूप में गढ़ा है तथा अपनी वास्तविक जीवनशैली में समाहित किया है ।
प्रकृति की उत्पत्ति एवं महाप्रलय (कलडूब) के बाद मानव जाति का वेन (वंश) विस्तार हुआ ।
मानव वंश किसी धर्म या जाति का नहीं था ।
धर्म और जाति युरेशियनो की कुंठित मस्तिष्क में उपजी हुई खरपतवार है, जिसे प्राकृतिक मानववादी विचारधारा रुपी फसल को नष्ट करने के लिए कपटपूर्वक बोया गया तथा अभी भी यह प्रक्रिया जारी है ।
इस अमानुष गर्भ को पैदा करने वालों को यह ज्ञात होना चाहिए था
कि मानव स्वयं प्रकृति का दिया हुआ बहुमूल्य वरदान है ।
आदिवासियों ने न कोई धर्म की स्थापना की और न ही जाति की ।
जाति और धर्म के तमाम हथकण्डों और कर्मकाण्डों से अपने आप को युगों-युगों से दूर रखा और प्रकृति सम्मत विचारधारा को ही अपना धर्म मान लिया ।
इससे बड़ी मानवीय विचारधारा में धर्म और जाति का कोई अस्तित्व ही नहीं है ।
यूरेशियन घुमंतू जाति के लोगों का गोंडवाना लैण्ड में आगमन के पश्चात गोंडवाना वासियों की कला-कौशल, प्राकृतिक परम्परावादी, सुखी एवं समृद्धपूर्ण जीवनशैली को देखकर अपने आप को तुच्छ महसूस करने लगे ।
इसी तुच्छ मानसिकता की उपज "जाति" और "धर्म" हैं ।
अपनी होसियारी या अपने आप को अस्तित्व में लाने के लिए पृथक धर्म, जाति एवं संस्कृति के निर्माण/स्थापना का कुचक्र चलाया ।
यह विचार उनके स्वयं के लिए ऊंचे स्तर की स्वार्थसिद्धी हासिल करने के लिए आवश्यक था, सो उनहोंने किया,
लेकिन आदिवासियों ने तो जाति, धर्म, संस्कृति शब्दबोध की उत्पत्ति के हजारों-लाखों वर्ष पूर्व प्राकृतिक मानव धर्म एवं संस्कृति का स्थापत्य कर लिया था ।
तब आर्यों (युरेशियनो) को गोंडवाना की धारा पर पृथक जाति, धर्म और संस्कृति की स्थापना की आवश्यकता क्यों पड़ी ?
इस तथ्य पर किसी को शक नहीं होना चाहिए कि आदिवासी संस्कृति विश्व संस्कृति कि जननी है ।
आदि और अनंतकाल से अपनी रीति-रिवाज, परम्परा, कला-कौशल एवं समृद्ध संस्कृति को अब तक बचाए रखने का कूई गूढ़ रहस्य नहीं है, किन्तु आज भी प्रकृति मूल के अपनी रीति-रिवाज, परम्परा, कला-कौशल एवं संस्कृति को आधार मानकर बिना लोभ-लालच, इमानदारी, सादगीपूर्ण, शांतिपूर्ण एवं संतोषपूर्ण जीवन जीने की कुशलता आदिवासियों की लहु के कण-कण में विद्यमान है ।
और यही उसका गौरव है. आदिवासियों की पारंपरिक जीवन पद्धति, भाषा एवं संस्कृति वास्तव में गैरआदिवासियों के समझ से परे है या जानबूझकर आदिवासियों की प्राकृतिक परम्परावादी जीवनशैली की अच्छाईयों को अपने जीवन में समाहित करने में कतराते है ?
यह बात आदिवासियों के समझ से परे नहीं हैं ।
भारत की संस्कृति निःसंदेह विश्व के अन्य देशों की संस्कृति से भिन्न/श्रेष्ठ है"
इसीलिए सम्मान भाव से देखा जता है, किन्तु वह भारत है कहाँ ?
८० प्रतिशत भारत गाँवों, कस्बों, जंगलों, पहाड़ों में बसी है ।
गाँवों, कस्बों, जंगलों, पहाड़ों का भारत यहाँ के मूलनिवासियों का भारत है ।
आदिवासियों का भारत है, जहां प्रकृति पर प्रकृतिवादी मानव सभ्यता एवं उनकी संस्कृति रची-बसी है ।
मानव के जन्म के पूर्व से लेकर मृत्यु के पश्चात तक के कार्यों में मानव समाज की प्राकृतिक संस्कृति ही संस्कृति दिखाई देती है ।
जन्म से मृत्यु तक उम्र के विभिन्न पड़ावों पर माता-पिता, भाई-बहन, घर-परिवार, समाज, देश एवं प्रकृति के बीच सैद्धांतिक, नैतिक, चारित्रिक पवित्र मानवीय संबंधों की स्थापना करते हुए सुखी एवं सांसारिक जीवन मूल्यों की सार्थकता को सिद्ध करने के लिए माता-पिता, भाई-बहन, घर-परिवार, समाज द्वारा विभिन्न सांस्कारिक रीति-रिवाज, परम्परा, कला-कौशल के गौरवपूर्ण आयोजनों के माध्यम से प्रकृतिसम्मत जीवन के गूढ़ ज्ञान का सामाजिक, नैतिक एवं कलात्मक प्रदर्शन ही मानव संस्कार है ।
प्रत्येक माता-पिता, भाई-बहन, घर-परिवार, रिश्ते-नाते एवं समाज द्वारा इस ज्ञान को अगली पीढ़ी को हस्तांतरित करने की निरंतरता को बनाए रखने के लिए किए जाने वाले कलापूर्ण आयोजन ही उसकी संस्कृति है ।
यही ज्ञान एवं सांस्कारिक कर्म ही मनुष्य को प्राणी/पशुता जीवन से मुक्त करता है ।
आदिवासी समाज ने इसी प्रकृतिसम्मत ज्ञान एवं कर्म को जीवन के विभिन्न पड़ावों पर सम्मानपूर्ण वैचारिक एवं चारित्रिक परिवर्तन के लिए संस्कृति के रूप में गढ़ा है तथा अपनी वास्तविक जीवनशैली में समाहित किया है ।