आदिवासी पूर्वज मूलक संस्कृति

आदिवासी पूर्वज मूलक संस्कृति

पूर्व में उल्लेख किया जा चुका है कि गोंड आदिवासी समुदाय अपने पूर्वजों की पवित्र आत्मा को ही देवी-देवता (माता-पिता) के रूप में घर में स्थापित कर पूजा करता है ।

माता-पिता, पूर्वजों से बढ़कर उनका कोई और भगवान नहीं है,अपने पूर्वजों की पवित्र आत्मा को अपने घर के देवी-देवता के रूप मे स्थापित किया जाना तथा उनकी नित पूजा करने का विधान केवल आदिवासी संस्कृति मे ही मिलता है ।

प्रतिदिन का भोजन पहले अपने पूर्वजों को अर्पित करता है, उसके पश्चात वह स्वयं भोजन करता है ।

अन्य समुदाय वर्ष मे केवल एक दिन पितरों की पूजा करता है और भोग चढ़ाता है,इस प्रकृति मे पैदा होने वाला भौतिक शरीर अंत मे पंचतत्वों मे विभक्त होकर प्रकृति मे विलीन हो जाता है ।

उत्पत्ति और अंत प्रकृति का विधान है,इस विधान से बढ़कर और कोई सत्य नहीं है,इसीलिए आदिवासी समुदाय के आध्यात्म एवं संस्कृति मे इसी सास्वत प्राकृतिक शक्ति की पूजा "प्रकृति पूजा" के रूप मे मिलती है ।

इसी आध्यात्म और संस्कृति के आधार पर आदिवासी समाज मूर्तिपूजक कादापी नहीं है ।

भौतिक सत्ता की जमीन पर कदम रखने वाले आदिवासिजनों को अपनी असली जीवन संस्कृति
पर लौट आने की जरूरत है ।

आदिवासियों की सामाजिक रीति-रिवाज, परम्परा, कला-कौशल तथा संस्कृति दुनिया की किसी भी संस्कृति से न ही धूमिल है और ना ही खराब है ।

आदिवासी संस्कृति आडंबरपूर्ण आधुनिक रीति-रिवाजों, पूजा पद्धतियों से परिमार्जित नहीं है, बल्कि सदियों-सदी से प्रकृति के संसाधनों के साथ मानवीय नैतिक व सांस्कारिक जीवन मूल्यों को सहेजने का एक सार्थक विधान है ।

 जिसमे प्राकृतिक शक्ति (Netural Power) नीहित है ।

इसी प्राकृतिक शक्ति में नीहित जीवनशैली से आदिवासियों को प्राप्त चैतन्य शक्ति के कारण आज प्रकृति एवं उसकी संस्कृति विद्दमान है, जो किसी और समुदाय में नहीं मिलता ।

पढ़े लिखे आदिवासी समुदाय के लोग अपनी एवं दुनिया की महान समझी जाने वाली पवित्र आदिवासी संस्कृति को कुरूपता प्रदान कर रहे हैं ।

तथा दुनिया की आडंबरपूर्ण कृत्यों को सहेजकर आदिवासीपन एवं आदिवासी सांस्कृतिक जीवन के विनाश का घोर षडयंत्र रच रहे हैं ।

इसका परिणाम वर्तमान जीवन में विभिन्न स्वरूपों में मिलना/प्रकट होना शुरू हो चूका है,
चाहे वह सामाजिक, पारिवारिक, आर्थिक, राजनीतिक व अन्य कोई दूरदृष्टिता अथवा उच्चस्तरीय
हितलाभ प्राप्त करने की दृष्टि से हो सकता है ।

आधुनिक भौतिक युग में यह कहा जाय कि आदिवासियों को भौतिक सत्ता की कुर्सी पर बिठाने
वाली शक्ति उसकी संस्कृति है ।

संस्कृति, परंपरा, रीति-रिवाज के आधार पर ही आदिम समुदाय को संवैधानिक संरक्षण प्रदान किया गया है,
उसी संस्कृति को समुदाय के पढ़े-लिखे लोग आडंबरपूर्ण और मिथ्या करार देते हैं ।

जिस थाली में खाया उसी में छेद करने वाली कहावत को चरितार्थ कर रहे हैं, जिस संस्कृति ने आधुनिक सुख, सुविधा एवं सम्पन्नता प्रदान की उसी संस्कृति को ठोकर मारना ऐसे आदिवासियों को महंगा पड़ सकता है ।

आज भी समय है तथा वक्त की पुकार है कि आदिवासी जीवन की मुख्य धारा से दूर गया हुआ आदिवासी अपने वास्तविक जीवन शैली एवं संस्कृति की धरा पर वापस लौट आए अन्यथा इसका विनाशकारी दुष्परिणाम सम्पूर्ण आदिवासी समाज को भुगतना पड़ेगा ।

इस असामाजिक, असांस्कृतिक एवं अमानवीय कृत्य के लिए आदिवासी समाज के सिर्फ और सिर्फ पढ़े-लिखे, शिक्षित लोग ही जिम्मेदार होंगे ।

धर्म दर्शन

आदिवासियों का जन्मजात गौरवपूर्ण प्राकृतिक विधान/ज्ञान सम्पूर्ण मानव जाति में संतोष एवं सौहाद्रपूर्ण मानव नैतिकमूल्यों का संरक्षण करता है, अनैतिक छल-कपट, अमीरी-गरीबी, पाप-पुण्य का नहीं ।

ऐसे प्रकृति विधान रुपी ज्ञान का प्रकाश दस्तावेजी धर्मों के ज्ञान प्रकाश की सीमाओं तक कहीं भी नजर नहीं आता ।

अमानवीय, झूठी, स्वार्थसिद्धी के लिए किए जाने वाले आडंबरपूर्ण, अनैतिक जीवनमूल्यों के काल्पनिक प्रवाह को आज धर्म की संज्ञा दी जा रही है. धर्म प्रकृतिगत सांसारिक एवं सांस्कारिक मानवीय जीवनमूल्यों का पिटारा है ।

समता, सदभाव, समानता, संस्कृति, परम्परा तथा सम्पूर्ण मानवीय नैतिकमूल्यों का पवित्र प्रवाह के साथ प्रकृति के साधनों का संयमित उपभोग एवं सम्पूर्ण प्राणीजगत व उनके जीवन के हितों का संरक्षण करना ही धर्म है ।

धर्म- मानवीय स्वार्थसिद्धि का साधन नहीं है, जो आज के परीवेश में दिखाई देता है. किसी व्यक्ति विशेष की प्रतिभा, शास्त्र का चारित्रिक ज्ञान "धर्म" नहीं है ।

प्रकृति मे ही प्राणियों ने जन्म लिया. जीवन की प्रथम प्राण वायु इसी प्रकृति ने दिया ।

प्रकृति से ही भोजन पाया,प्रकृति मे ही जीवन संवारा और संस्कारवान बना ।

इसीलिए मनुष्य द्वारा प्रकृति मे समान जीवन जीने की कला-कौशल एवं समृद्धि हासिल करते हुए, इस प्रकृति रूपी विशाल रंगमंच पर, प्रकृति की तरह विराट हृदयी किरदार निभाकर, अंत मे उसी मे मिल जाना ही प्रकृति धर्म दर्शन है,इसके अलावा सब आडंबर है ।