आदिवासी प्रकृति मूलक संस्कृति

आदिवासी प्रकृति मूलक संस्कृति

श्रृष्टि में प्राणियों का साक्षात्कार सर्वप्रथम प्रकृति से हुआ ।

तब प्राणियों को सर्वप्रथम आवश्यकता आहार की हुई एवं उसे पहचाना,प्रकृति के समस्त प्राणी आहार के लिए पेड़-पौधे, फूल-फल, पत्ते तथा दूसरे प्राणियों पर निर्भर हो गए. एक प्राणी द्वारा दूसरे प्राणी का भक्षण किया जाना उसकी शारीरिक शक्ति/क्षमता/आकार पर निर्भर करने लगा ।

उसी प्रकार मनुष्य भी प्राणियों के व्यवहार को समाहित कर लिया,प्राणियों में केवल मनुष्य अपने बौद्धिक विकास की अलौकिकता के कारण व्यवहार को जानने हेतु सोचने, समझने और वाणी में उद्घृत करने का तंत्र विकसित कर लिया एवं इस बौद्धिक विकास के क्रम में उसने अपने एवं समूह की सुरक्षा के लिए सुरक्षा साधनों का विकास किया ।

मनुष्य का यही बौद्धिक विकासक्रम कालान्तर में उसे पशुता से मनुष्यता में स्थापित कर दिया ।

अब मनुष्यों के समूह की जीवन की समस्त आवश्यकताओं की पूर्ती समूह के सदस्यों द्वारा किया जाने लगा. समूह के आधार पर संसाधनों की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्राकृतिक संसाधन उसके जीवन के अभिन्न अंग बन गए, जिनके बगैर मनुष्य आर भी अपने जीवन की कल्पना नहीं कर सकता ।

अच्छाई और बुराई की समझ उसकी संतति की उत्पत्ति और सुरक्षा से प्रारम्भ हुई,संतति की सुरक्षा का एहसास एवं समझ किसी में कम किसी में ज्यादा, प्राणियों में जन्मजात है ।

प्राणी प्रकृति प्रदत्त अपनी शारीरिक बनावट, क्षमता, आकार, रंग एवं बौद्धिक कुशलता से प्रकृति में घटित होने वाली घटनाओं से स्वयं एवं अपने समूह की रक्षा करता है ।

अपने जीवन में आदिवासी समय-समय पर प्रकृति एवं प्राणियों के परिवर्तित जीवन स्वरूपों को
अमूल्य धरोहर "संस्कृति" के रूप में समाहित किया है ।

आदिकाल से आदिवासियों के ग्रामीण जीवन में झांक कर देखें तो यह तथ्य साबित हो जाता है कि वास्तव में उसका जीवन प्रकृति से कितना जुड़ा है ।

अर्थात प्रकृति के बिना मानव तो क्या समस्त चर-अचरों का जीवन ही नहीं है,आदिम समाज प्राकृतिक आध्यात्म के दर्शन को देवी-देवताओं के रूप में अपनाता है और अपने जीवन की सुरक्षा एवं संरक्षण के लिए प्रकृति की पूजा करता है ।

इसीलिए आदिम समाज के पारिवारिक, सामाजिक, सांस्कारिक एवं आध्यात्मिक मूल में प्रकृति पूजा का विधान मिलता है, जिसके कारण वह प्रकृति पूजक कहलाता है ।

ग्राम जीवन में प्रकृति प्रेम एवं पूजा का निम्नानुसार स्वरुप दिखाई देता है :-


(१) खेरमाई (ग्राम समुदाय की माता)

सबसे प्रथम आदिम मानव समुदाय ने धीरे-धीरे समूह में रहने का तंत्र विकसित किया ।

समूह में रहने का महत्व एवं लाभ को जाना और आज भी वह समूह में ही रहना पसंद करता है ।

आदिम मानव समाज के इन्ही समूहों में रहने के स्थानों को गावँ या ग्राम कहा गया है,ग्राम यूँ ही नहीं बस गए. गावों को बसाने वाले समुदाय के प्रथम मुखियाओं द्वारा इन गाँवों को विधानपूर्वक बसाने के अनेक प्राकृतिक प्रतीक जीवित हैं, जिनकी मान्यताएं आधुनक काल में भी प्रचलन में हैं ।

आदिम मानव समुदाय ही नहीं आधुनिक समाज भी इन प्राचीन विधानों का अनेक एवं परिवर्तित स्वरूपों में अनुसरण करता हुआ दिखाई देता है ।

गावों को बनाने/बसाने के पूर्व वहाँ की मिट्टी, वायु, जल का परीक्षण, जल एवं कृषि भूमि की उपलब्धता, आवास बनाने हेतु प्राकृतिक संसाधन, पशुओं के लिए आवश्यक चारागाह की उपलब्धता आदि का ध्यान रखा जाता था ताकि जीवन उपयोगी संसाधनों की आवश्यकता अनुसार सतत पूर्ति हो सके ।

इन गाँवों, स्थानों, घरों को बसाने/बनाने के पूर्व पूजा-विधानों के कार्यों को किए जाने का मुख्य आधार यही होता है कि वहाँ बसने वाले मानव समुदाय सुख-शान्ति और समृद्धिपूर्ण जीवन निर्वाह करे ।

आदिम मानव समुदाय द्वारा ग्राम/गाँव बसाए जाने के पूर्व भविष्य के परिस्थितयों का आकलन करते हुए वर्तमान ही नहीं अपनी आने वाली पीढ़ी की सुख और समृद्धि को ध्यान में रखते हुए प्राकृतिक आध्यात्म और मान्यता अनुसार ग्राम देवी-देवताओं की स्थापना की जाती रही है ।

इन देवी-देवताओं की स्थापना ग्राम जीवन की महत्ता, कार्यों की सफलता, प्राकृतिक आपदाओं से ग्राम की सुरक्षा, फसल, पशु, मानव समुदाय व ग्राम की सुरक्षा आदि के उद्देश्य से ग्राम प्रमुखों,
परिवार प्रमुखों के द्वारा उपवास रखकर की जाती है ।

आदिम समुदाय की प्राचीन सामुदायिक जीवन मातृप्रधान होने के कारण समूह की प्रथम माता जंगो रायतार दाई (समूह की रक्षा सहने वाली माता), माता कली कंकाली के रूप में मिलती है,
जिनकी भावी सांस्कारिक मानव समाज के निर्माण में अहम भूमिका मिलती है ।

शंभू काल की इन पूर्वज मानववंश की माताओं की महिमा अपार और अनंत है ।

इनकी महिमाओं का बखान करने की शक्ति/क्षमता गोंडवाना संदेश की लेखनी में नहीं है ।

गोंडवाना के अनेक महान साहित्यकारों ने इन माताओं की जीवन-गाथा के बारे में गोंडवाना साहित्यों में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है ।

किन्तु यहाँ अनादिकाल के पराविज्ञानी पितृ एवं मातृशक्ति (नांगा बैगा-नांगा बैगिन) धरती पुत्र भूरा भगत और धरती पुत्री माता कोतमा के ७ पुत्रों और ५ पुत्रियों के द्वारा समाज सेवा की भूमिका के संबंध में यथा स्थान सक्षम स्तर से जानकारी रखी जा रही है ।

इन भाई बहनों में सबसे छोटी बहन अर्थात ग्राम समाज की माता "खेरमाई/खेरोमाई" है ।

कहा जाता है कि भूई पुत्र भूरा भगत और भूई भोज की पुत्री माता कोतमा (नांगा बैगा-नांगा बैगिन) के ७ पराक्रमीपुत्रो में से जेष्ठ पुत्र "कुंआरा भिमाल" हुए ।

उनमें समाज रचना, श्रृजन एवं ज्ञान की विलक्षण प्रतिभा, पराविज्ञान की प्रतिभा और अकूत ताकत (बल) था ।
इसलिए वे हमेशा समाज की भलाई के लिए श्रृजन एवं पराविज्ञान की खोज में ही लगे रहते थे ।

पराविज्ञानी होने के कारण वे गावँ-गावँ जाकर सामुदा/समाज की सुख, शान्ति और समृद्धि के लिए पराविज्ञान का उपयोग कर जिस-जिस गाँव में जाते थे, वहीँ देव ठाना-बाना स्थापित किया करते थे ।

इस सामाजिक कार्य में अतिरुचि एवं उत्साह के कारण वे घर से निकल कर एक गाँव से दूसरे गाँव, दूसरे गाँव से तीसरे ...... और अंत तक वे घर वापस नहीं आए ।

कुंआरा भिमाल के घर वापस नहीं लौटने पर माता-पिता अति चिंतित होकर उनके सभी ६ भाईयों को उन्हें ढूँढकर वापस घर लाने के लिए भेज दिए और यह भी आदेश दिए कि जब तक कुंआरा भिमाल न मिले तब तक कोई घर नहीं आओगे ।

सभी भाईयों ने गोंडवाना भू-भाग का गाँव-गाँव, कोना-कोना ढूँढते रहे ।

ग्राम समुदायों से उनकी जानकारी मिलती रही, किन्तु निश्चित ठौर-ठिकाना कूई नहीं बता पाते. ढूँढ़ते-ढूँढ़ते बरसों बीत गए ।

अंततः कुंआरा भिमाल अपनी विशेषज्ञता के आधार पर ग्रामजनो की सेवा, समर्पण, कर्तव्य परायण, व्यक्तित्व एवं समुदाय में अटूट श्रृद्धा भक्ति विश्वास के रूप में उन्हें  मिला ।

अपने भाईयों के आगमन का कारण समझने में उन्हें देर नहीं लगी,सभी भाईयों द्वारा माता-पिता का संदेश बताकर उन्हें घर वापस चलने का आग्रह किया गया ।

कुंआरा भिमाल संदेश सुनकर चिंतित हो उठा,एक तरफ माता-पिता का पुत्र स्नेह के लिए डबडबाई आँखों का इन्तजार तथा दूसरी ओर ग्रामजनों की सेवा, कर्तव्य परायणता से दूर होने की स्थिति का दुख उन्हें सता रहा था ।

चिंतन मनन कर उन्होंने अपने भाईयों एवं ग्राम समुदायों को प्राकृतिक आध्यात्म, जन्म-मृत्यु, सुख-दुख, परिवार, समाज, संस्कृति, समाजसेवा आदि की मानव जीवन में महत्व एवं उपयोगिता के संबंध में उपदेश देते रहे ।

उनके जीवन उपदेशों और विचारों के सागर में डूबकर भाईयों के सांसारिक मोह माया भी धुल गए और वे भी गाँव-खूटों के किनारों में बैठकर अपनी-अपनी विशेज्ञता अनुसार कूईतुरों की विभिन्न प्रकार की सेवाओं में लग गए और सभी भाई अंततः घर वापस नहीं लौटे ।

इनमे से एक भाई गाँव का "ठाकुर देव" एक "खीला मुठवा" एक गाँव के मेढ़ो/सरहद/नार से गाँव का रखवाला, पहरा देने वाला, पाट-पीढ़ा करने वाला "कुंआरा भिमाल" आदि जिनकी मान्यता अनुसार आगे उल्लेख किया गया है ।

कई वर्ष बीत जाने तथा उन ६ भाईयों के घर वापस नहीं लौटने पर उनके माता-पिता फिर चिंतित होकर सभी बच्चों के बारे में सोचने लगे,उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि वे कहाँ निकाल गए । अब क्या करें ?
माता-पिता बच्चों की याद मे बेचैन हो उठे,उनकी आँखें बार-बार बाहर निहार रही थीं,उनकी आँखे अपने बच्चों को देखने के लिए तरस गईं,सभी बहनों मे उदासी छा गई ।

कई दिनों बाद माता-पिता ने पुनः निर्णय लिया और अपने पांचो बेटियों को सभी भाईयों को ढूँढकर लाने का आदेश दिए और यह भी आदेश दिए कि जब तक उनके सभी भाई उन्हें नही मिल जाते तब तक वे घर वापस न आयें ।

आदेश का पालन करने के लिए सभी पांचो बहिनें उन्हें ढूँढने निकल पड़े ।

पांचो बहिनें गाँव-गाँव खोजते रहे किन्तु उनकी स्थिरता कोई नहीं बता सकता था ।

महीनों कूजने के बाद उन्हें मिल गए,मिलने के पश्चात बहनों के सामने आई और वही उपदेश मिला जो भाईयों को मिला था. उपदेश पाकर सभी बहनें गाँव के विभिन्न खूटों, ठौर-ठानों मे स्थित होकर अपनी-अपनी विशेषज्ञता अनुसार कोईतुरों की सेवा मे लीन हो गए और अंततः घर वापस नहीं लौटे ।

इन्ही पांच बहनों में से सबसे छोटी बहन "खेरमाई" कोईतुरों की सेवा और रक्षा के लिए प्रसिद्धि प्राप्त की, जिसके कारण आदिकाल से आज तक आदिवासी समाज श्रृद्धा पूरित भाव से "खेरमाई" की पूजा करते हैं ।

खेरमाई/खेरोमाई को ग्राम/गावँ खूट की प्रथम माता माना जाता है ।

प्रथमतः गावँ माता के रूप मे आदिम समुदाय द्वारा पूजे जाने वाली खेरमाई/खेरोमाई अर्थात गाँव की रक्षा, सुख, समृद्धि प्रदान करने वाली माता की स्थापना ग्राम के मध्य भाग में स्थित अधिकतर बड़, पीपल, महुआ प्रजाति के जीवनदायिनी विशाल वनस्पति/वृक्ष (झाड़) के मूल में किए जाने की मान्यताएं मिलती हैं ।

इन प्रजातियों के वृक्ष सुगमता से ग्राम के मध्य या आस-पास नहीं पाए जाने की स्थिति में अन्य वृक्षों में भी "खेरमाई"की स्थापना की जाती है ।

खेरमाई के साथ मान्यता अनुसार अनेक जीवीय संसाधनों की सुरक्षा, रक्षा करने वाली माताएं एवं देवताओं -"अगुवानी (हिरवा), अन्नपूर्णा/पंडरी/पुगुर माता (विविध अन्न), पंचतत्वों के प्रतीक देवताएं आदि की स्थापना की जाती हैं ।

ग्राम के ग्राम देवताओं, खेत-खार, खरही-खानिहाल, जंगल-हार, नदिया-नरवा, ताल-पनघट, कुआं-बावली, पाट-पीढ़ा, रस्ता-बाट, डोंगर-घाट आदि अनेक स्थानों पर स्थापित हैं, जिनका गाँव के रक्षक देवी-देवताओं के रूप में ग्रामवासी वर्ष के विभिन्न कर्मप्रधान अवसरों पर पूजा करते हैं ।

प्रतीक के रूप में माताओं के धारित विभिन्न रंगों के कुल/कुटुंब के वंशध्वज लगे सल्ले-गांगरे स्वरुप कुंवारी लौह धातु/बांस के बने विभिन्न त्रिमार्गी बाना/शूल में लगे होते हैं ।

कई स्थानों में पूजा हेतु चौक-चौरा आदि बनाए जाते हैं,कहीं कुछ भी प्रतीक भी नहीं मिलते ।

पूजा के समय पूजा स्थान का सफाई कर लिया जाता है,इनके अलावा किसी अन्य देवी-देवताओं की मूर्ती की स्थापना व पूजा का विधान नहीं मिलता ।


वर्तमान में गोंडवाना के अनेक पहाडों पर स्थापित एवं पूजे जाने वाली माताएं खेरोमाई के बावन लश्गर (पहाड़ों से गढों की रक्षा/सुरक्षा करने वाली/गढ़ माता) हिंगलाजनी, शारदा, दंतेश्वती, बम्लेश्वरी, महामाया, चंद्रहासनी, कोकासनी, शीतला, विमलेश्वरी, राजराजेश्वरी, रणचंडीका, तपेश्वरी, ज्वाला, बूढ़ी दाई, मनिया दाई, लंजकाई, चौरा देवी, मालादेवी, मरही माता आदि बताए गए हैं ।

इन सभी में सगा-सम्बन्धी, रिश्तेदारी की मान्यताएं गोंडी गण-गाथाओं में मिलती हैं ।


(२) ठाकुर देव

पूर्व उल्लिखित नांगा बैगा-नांगा बैगिन के ७ पराक्रमी पुत्रों, जो सबसे बड़े पुत्र कुंआरा भिमाल की खोज में निकले थे, उनमे से एक ठाकुर देव (जाटवा) है ।

माना जाता है की ठाकुर देव बीज परीक्षण, भूमि उर्वरा परीक्षण, जल, कीट पतंगी गुण-धर्म के ज्ञाता थे,
जिन्होंने ग्राम के मानव समुदाय को फसल जीवनचक्र के ज्ञान के द्वारा अधिक अन्न-धन उपजाकर समृद्धि हासिल करने का मार्ग बताया ।

इसलिए ग्राम देवी देवताओं की मान्यता अनुसार बिदरी मनाकर बीज सूत्र/बोए जाने वाले अन्न बीज का अंश चढाकर बीज की रक्षा, फसलों की कीट-पतंगों से रक्षा, भूमि उर्वरा, हवा, जल सान्द्रता/समन्वय आदि प्रकृतिगत वैधानिक रक्षा की कामना पूर्ति के लिए कृषि ग्राम जीवन में ठाकुर देव की पूजा की जाती है ।

ठाकुर देव की स्थापना भी महुआ, आम, नीम आदि मान्य पेड़ों पर ही प्रकृतिगत सांस्कारिक विधानपूर्वक किया जाता है,
यह ग्राम का ठाकुर और ग्राम देवों मे प्रमुख है ।


(३) खीला मुठवा

ग्राम जीवन में आदिवासियों के जीवन निर्वाह के साथी पशु-पक्षी, गाय, बैल, भैंस, भेड़, बकरी, कुकरी-मुर्गी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं.
बैलों के माध्यम से कृषि कार्य किए जाते हैं तथा गाय, भैंस, भेड़, बकरी से दूध उत्पादन किया जाता है ।

इन पशुओं से परिपूर्ण परिवार समृद्ध परिवार कहलाता है,ये मानव सहयोगी पशु-पक्षी धन के प्रतीक माने जाते हैं ।

इन्हें चारागाह में ले जाने के पूर्व ग्राम के बीचों-बीच या किनारे निर्धारित एक सामूहिक गौठान में रखा जाता है ।

इसी सामूहिक गौठान के पास ही खीला मुठ्वा की स्थापना की जाती है, ऊपर वर्णित पांच भाईयों में से एक भाई "खीला मुठ्वा" (मुकेशा) के रूप में इसकी मान्यता मिलती है, जो पशु-पक्षियों की प्रकृति के जानकार, संरक्षक और वैधक कार्य से परिपूर्ण था.
इन्होंने आदिम मानव को पशुओं की प्रकृति, संरक्षण एवं व्यावहारिक जीवन में उनकी उपयोगिता का ज्ञान प्रदान कर जीवन में समृद्धि प्राप्त करने का संदेश दिया ।

इस आधार पर खीला मुठवा ग्राम पशुओं के संरक्षक, रोग-दोष से मुक्ति, जंगली जानवरों, कीट-पतंगों से सुरक्षा, कृषि कार्यों में उपयोग में लाई जाने वाली औजारों का निर्माण एवं सुरक्षा करने वाला देव माना जाता है ।

इसलिए इन्हें ग्राम के शमूहिक गौठान के पास ही स्थापित किया जाता है,खीला मुठावा देव को भी किसी विशाल वृक्ष-सेमल, महुआ, नीम आदि में (मान्यता अनुसार) स्थापित किया जाता है ।

(४) मेढ़ो देव

गावँ की सरहद में रहकर १० दिशाओं में सुरक्षा कवच बनकर गावँ की रक्षा करने वाला देव "मेढ़ो देव"कहलाता है.
उपरोक्त ५ भाईयों में से प्रथम महाबली/शक्तिशाली, हवा, बिजली, बादल, पानी, तूफान, वर्षा, प्रकृति के जानकार, तंत्र-मंत्र, झाड़ा-फूँका, वैध्य कला में पारंगत, मढ़िया के रखवाला "भिमाल पेन" है ।

इसे "नार" अर्थात ग्राम की सरहद का रखवाला "नारसेन" देव भी कहा जाता है ।

इसे ग्राम की सरहद पर स्थित पेड़, चट्टान, पत्थर आदि में स्थापित किया जाता है,माना जाता है की नारसेन देव ग्राम की दशों दिशाओं की सरहद से ग्राम में प्रवेश करने वाले विपत्तियों को रोकने की क्षमता भिमाल पेन में है ।

इसलिए वह अपने भाई-बहनों (ग्राम देवी देवताओं) तथा ग्रामजनों की सरहद में रहकर हर मुसीबत से रक्षा करने वाला देव माना जाता है ।

कुंआरा भिमाल सबसे बड़े पुत्र/भाई के रूप मे स्थापित हुए,इनके अलावा शेष भाई-बहन भी ग्रामसेवा, जनसेवा में ग्राम के अनेक खूट, पाट, ठानों, ताल, तरिया, पनघट, खेत-खानिहाल में मान्यता अनुसार विराजमान हैं, जो आगे शोध का विषय है।

क्षेत्रीय बोली-भाषा के आधार पर इन ग्राम देवी-देवताओं के नाम के उच्चारण में अपभ्रंस हो सकता है, किन्तु इनकी स्थापना का उद्देश्य ग्रामवासियों तथा उनके जीवन रक्षक विभिन्न संसाधनों की सुरक्षा, रोग-दोष, कलह, हिंसक जानवरों से स्वयं तथा पालतू पशु-पक्षियों की सुरक्षा, कीट-पतंगों से फसलों की सुरक्षा, प्राकृतिक प्रकोप से सुरक्षा तथा सुखी एवं समृद्ध जीवन की प्राप्ति के लिए की जाती है ।

इनकी स्थापना एवं पूजा का प्रकृतिमूलक विधान ग्राम जीवन का गौरव है ।